Adv Sonali Bobade having tremendous skilled to handle the divorce cases in Akola which come under the Hindu Marriage Act 1955 ,Special Marriage Act 1954 , Indian Divorce Act 1869 and Dissolution of Muslim Marriage Act 1939. Two Kinds Of Divorce which can separate the partner on the particular divorce ground as per aforesaid act. 1) Contested Divorce ( By One Party ) 2) Mutual Divorce ( By Both Party Consent).Guidance and representation for matters related to divorce, child custody, and family disputes.
अदालत का कहना है कि एक साल से अधिक समय से लंबित भरण-पोषण का बकाया सिविल मुकदमे के माध्यम से वसूल किया जा सकता है, भले ही सीआरपीसी की धारा 125(3) के तहत मजिस्ट्रेट के पास कोई डाटा उपलब्ध नहीं हो.सीआरपीसी की धारा 125 पत्नियों, बच्चों और माता-पिता के भरण-पोषण को लेकर कानून को नियंत्रित करती है. धारा 125(3) ऐसी स्थिति से संबंधित है जब कोई व्यक्ति बिना किसी कारण से भरण-पोषण के किसी भी आदेश का पालन नहीं करता है.ऐसी स्थिति में, मजिस्ट्रेट जुर्माना लगाने के लिए निर्धारित तरीके से बकाया राशि वसूलने के लिए वारंट जारी कर सकता है, या एक महीने की जेल की सजा भी दे सकता है. हालांकि, प्रावधान में यह भी है कि कोई भी वारंट जारी नहीं किया जा सकता है, जब तक कि इस तरह का आवेदन उस तारीख से एक साल के भीतर दायर नहीं किया जाता है जिस दिन यह राशि देय होती है.दूसरे शब्दों में कहे तो धारा 125(3) केवल रखरखाव आदेश के निष्पादन या कार्यान्वयन के लिए उस तारीख से एक साल के भीतर दायर करने की अनुमति देती है जिस दिन यह राशि देय होती है. अब, उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया है कि एक साल से अधिक समय से लंबित भरण-पोषण का बकाया सिविल मुकदमे के माध्यम से वसूल किया जा सकता है, भले ही मजिस्ट्रेट के समक्ष धारा 125(3) के तहत सहारा अब उपलब्ध नहीं है.न्यायमूर्ति नीना बंसल कृष्णा और न्यायमूर्ति सुरेश कुमार कैत की पीठ ने कहा, “चूंकि सीआरपीसी की धारा 125 का उद्देश्य केवल अपनी पत्नी, माता-पिता और बच्चों के प्रति पति के सामाजिक दायित्व को दर्शाता है, यह केवल तभी ऋण बनता है जब आश्रित/पत्नी को देय राशि निर्णय या डिक्री के माध्यम से स्पष्ट हो जाती है.” उन्होंने कहा, “एक बार जब एक निश्चित राशि देय हो जाती है, तो यह कानूनी ऋण बन जाता है. इसलिए, जिसकी वसूली सिविल मुकदमे के माध्यम से की जा सकती है.” पीठ एक पारिवारिक अदालत के मई 2019 के फैसले को चुनौती देने वाली अपील पर सुनवाई कर रही थी, जिसने रखरखाव के बकाया के रूप में 1.78 लाख रुपये की वसूली के लिए अपने नाबालिग बेटे की ओर से एक पत्नी के मुकदमे को खारिज कर दिया था. महिला को फरवरी 2008 में आवेदन दायर करने की तारीख से जनवरी 2010 में 5,000 रुपये प्रति माह का गुजारा भत्ता दिया गया था. पति द्वारा गुजारा भत्ता देने में विफल रहने के बाद, उसने गुजारा भत्ता की बकाया राशि की वसूली के लिए मई 2012 में मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट का दरवाजा खटखटाया. हालांकि, मजिस्ट्रेट ने 2008 से कुल राशि देने के बजाय मई 2011 से शुरू होने वाली एक वर्ष की अवधि के लिए उसे केवल बकाया राशि दी.अपील पर, पारिवारिक अदालत ने फैसला सुनाया कि एक सिविल मुकदमा चलने योग्य नहीं है, या मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट द्वारा रखरखाव आदेश के तहत दिए गए रखरखाव के बकाया की वसूली के लिए दायर नहीं किया जा सकता है.इस आदेश को उच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया, जिसने 5 प्रतिशत ब्याज के साथ 2.05 लाख रुपये की राशि के लिए मुकदमा दायर करने की अनुमति दी थी..Judgement Download Now.
: मामले में पत्नी की ओर से कन्नौज के महिला थाने में पति (याची) राम प्रवेश व उनके परिवार के तीन सदस्यों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई गई थी। मामले में पुलिस ने अप्रैल 2021 को आरोप पत्र दाखिल कर दिया था।इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि जब पति-पत्नी ने आपसी विवाद पर अदालती प्रक्रिया के जरिये आपस में समझौता कर लिया है तो उनके बीच वैवाहिक विवाद को रद्द कर दिया जाना चाहिए। यह आदेश न्यायमूर्ति चंद्र कुमार राय की पीठ ने रामप्रवेश व तीन अन्य की याचिका पर सुनवाई करते हुए दिया है।मामले में पत्नी की ओर से कन्नौज के महिला थाने में पति (याची) राम प्रवेश व उनके परिवार के तीन सदस्यों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई गई थी। मामले में पुलिस ने अप्रैल 2021 को आरोप पत्र दाखिल कर दिया था। याची ने हाईकोर्ट में अर्जी दाखिल कर आपराधिक कार्रवाई को रद्द करने की मांग की थी। याची ने तर्क दिया कि उसका उसकी पत्नी से समझौता हो गया है और निचली अदालत ने इसकी पुष्टि भी कर दी है।पति-पत्नी अपने बच्चों के साथ एक साथ रह रहे हैं। ऐसे में कार्रवाई से कोई उद्देश्य पूरा नहीं होता है। याची ने सुप्रीम कोर्ट के कई केसों का हवाला भी दिया। कोर्ट ने कहा कि जब पार्टियों ने अपने पूरे विवाद को आपस में समझौता करके सुलझा लिया हो और न्यायालय द्वारा इसे विधिवत सत्यापित कर दिया गया है। इसलिए इसे रद्द कर दिया जाना चाहिए। कोर्ट ने मामले में आरोप पत्र की कार्रवाई को पूरी तरह से रद्द कर दिया। Judgement Download Now...
: सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को प्रताड़ना के मामलों में महिलाओं के पक्ष में अहम फैसला सुनाया। चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने वैवाहिक विवाद से जुड़े एक मामले में आदेश दिया कि प्रताड़ना के चलते ससुराल छोड़ने को मजबूर हुई महिला उस जगह से भी केस दर्ज करा सकती है, जहां उसने शरण ले रखी हो।1) हाईकोर्ट ने खारिज कर दी थी पीड़िता की याचिका चीफ जस्टिस की बेंच ने कहा- क्रूरता के चलते ससुराल वालों का घर छोड़ने को मजबूर हुई महिला को भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए के तहत किसी भी जगह से केस दर्ज कराने की इजाजत है। भले ही वह उसके परिजनों का घर हो, या फिर कोई अस्थायी व्यवस्था। यह फैसला दहेज प्रताड़ना के मामलों में महिलाओं के लिए बड़ी राहत माना जा रहा है। फैसले से केस फाइल करने पर चली आ रही बहस थम गई है। इससे पहले केवल उसी जगह से आपराधिक मामले की जांच शुरू हो सकती थी, जहां पर पीड़िता के खिलाफ अपराध को अंजाम दिया गया हो। क्योंकि, सीआरपीसी की धारा 177 में यह अनिवार्य किया गया है कि आपराधिक मामले की जांच और सुनवाई केवल वहीं हो सकती है, जहां अपराध हुआ हो।सुप्रीम कोर्ट का फैसला रुपाली देवी के मामले में आया। दहेज प्रताड़ना के मामले में रुपाली देवी की याचिका इलाहाबाद हाईकोर्ट ने खारिज कर दी थी।रुपाली देवी अपने ससुराल से अपने माता-पिता के घर आ गई थीं। ऐसे में हाईकोर्ट ने धारा 498ए के तहत यह माना था कि क्रूरता ऐसा अपराध नहीं है, जो जारी रहता हो। ऐसे में इसकी जांच पीड़िता के वैवाहिक घर के अलावा दूसरी जगह नहीं हो सकती।हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने क्रूरता को धारा 489ए के तहत लगातार जारी रहने वाला अपराध माना है। अदालत ने कहा कि महिला किसी भी ऐसी जगह से केस फाइल कर सकती है, जहां उसने शरण ले रखी हो। Judgement Download Now...
: दिल्ली हाईकोर्ट ने एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि शादी के बाद अपने पार्टनर को सेक्स के लिए इनकार करना क्रूरता है। सेक्स के बिना शादी अभिशाप है। शादी के बाद यौन संबंधों में लगातार निराशा से ज्यादा घातक और कुछ नहीं हो सकता। इस मामले में पत्नी के विरोध के चलते शादी का मकसद ही पूरा नहीं हुआ है।महिला ने फैमिली कोर्ट के फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी थी। महिला ने आरोप लगाया कि पति और ससुराल वाले उसे दहेज के लिए प्रताड़ित करते थे। जस्टिस सुरेश कुमार कैत और जस्टिस नीना बंसल कैत की बेंच ने सुनवाई करते हुए महिला की याचिका को खारिज कर दिया। अदालत ने कहा कि महिला साबित नहीं कर पाई है कि उसे दहेज के लिए प्रताड़ित किया गया। मामले में फैमिली कोर्ट ने सही फैसला दिया था। हालांकि यह साबित नहीं हुआ है कि महिला ने पति को छोड़ दिया था, लेकिन महिला ने पति के साथ 18 साल तक जो किया, वह क्रूरता है। इस आधार पर पति महिला से तलाक ले सकता है। दरअसल, कपल की शादी साल 2004 में हिंदू रीति-रिवाज से हुई थी। इसके बाद महिला मुश्किल से 35 दिन अपने पति के साथ रही। महिला शादी के बाद भी पिछले 18 सालों से अपने मायके में रह रही है। पत्नी के ससुराल न लौटने पर पति ने फैमिली कोर्ट में तलाक की अर्जी दी, जिसके बाद कोर्ट ने तलाक का फैसला सुनाया था।कोर्ट ने कहा- पति आध्यात्मिक विचार को मानता है। पति ने पत्नी की ओर से दायर दहेज केस को हाईकोर्ट में चुनौती दी। मामले पर सुनवाई करते हुए जस्टिस एम नागप्रसन्ना ने कहा- याचिकाकर्ता के खिलाफ आरोप है कि वो कभी अपनी पत्नी के साथ शारीरिक संबंध बनाने का इरादा नहीं रखता था। आध्यात्मिक विचार मानता है। उसे विश्वास है कि प्यार कभी शारीरिक संबंध पर नहीं होता, ये आत्मा का मिलन होना चाहिए।कोर्ट ने कहा कि पत्नी की ओर से पति पर लगाए गए आरोप हिंदू मैरिज एक्ट की धारा 12(1) के तहत क्रूरता में आते हैं, लेकिन IPC की धारा 498A के तहत क्रूरता नहीं है। चार्जशीट में याचिकाकर्ता के खिलाफ ऐसी कोई घटना या तथ्य नहीं है, जो इसे IPC की धारा के तहत क्रूरता साबित करे।जस्टिस ने यह भी कहा कि तलाक के लिए फैमिली कोर्ट ने शारीरिक संबंध न बनाने को क्रूरता माना है, लेकिन कोर्ट इस आधार पर क्रिमिनल कार्रवाई जारी रखने की अनुमति नहीं दे सकता, इससे कानून का गलत इस्तेमाल होगा।Judgement Download Now...
. : दिल्ली हाईकोर्ट ने जीवनसाथी की क्रूरता को स्पष्ट करते हुए कहा कि पत्नी द्वारा पति के खिलाफ गंभीर और निराधार आरोप लगाना अत्यधिक क्रूरता है। अदालत ने कहा कि पत्नी ने अपने पति का एक महिला के साथ अवैध संबंध का गंभीर आरोप लगाया था लेकिन वह आरोपों को सुबूतों के माध्यम से साबित नहीं कर पाई। इसके साथ ही पारिवारिक न्यायालय के आदेश को हाईकोर्ट ने रद्द कर दिया।तलाक के मामले में जीवनसाथी की क्रूरता को स्पष्ट करते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने बड़ी टिप्पणी की है। हाई कोर्ट ने कहा कि पत्नी द्वारा पति के खिलाफ गंभीर और निराधार आरोप लगाना और उसे व उसके परिवार के सदस्यों के विरुद्ध कानूनी लड़ाई छेड़ना अत्यधिक क्रूरता है।आरोप साबित नहीं कर पाई पत्नी अपीलकर्ता को राहत देते हुए अदालत ने कहा कि पत्नी ने अपने पति का एक महिला के साथ अवैध संबंध का गंभीर आरोप लगाया था, लेकिन वह आरोपों को सुबूतों के माध्यम से साबित नहीं कर पाई। यह टिप्पणी करते हुए न्यायमूर्ति सुरेश कुमार कैत व न्यायमूर्ति नीना बंसल कृष्णा की खंडपीठ ने तलाक देने से इनकार करने के पारिवारिक न्यायालय के आदेश को रद्द कर दिया।साथ ही हिंदू विवाह अधिनियम-1955 की धारा 13(1) (आइए) के तहत पति को क्रूरता के आधार पर तलाक की मंजूरी दे दी। अदालत ने कहा कि गंभीर आरोप लगाना महिला की प्रतिशोधी प्रकृति को दर्शाता है और यह पति के प्रति अत्यधिक क्रूरता के बराबर है।इतना ही नहीं महिला ने अपीलकर्ता के भाई पर उसका यौन शोषण करने के साथ ही परिवार के सदस्यों द्वारा दहेज उत्पीड़न का भी आरोप लगाया था, लेकिन आरोपों को किसी भी ठोस सुबूत द्वारा प्रमाणित नहीं किया जा सका। पत्नी को अपने आरोपों के समर्थन में ठोस सुबूत देकर यह स्थापित करना था कि उसके साथ क्रूरता की गई थी, लेकिन महिला ने न तो अपने आरोपों की पुष्टि की है और न ही अपने आचरण को उचित ठहरा सकी। 2006 से अलग रह रहे थे पति-पत्नी अदालत ने कहा कि पारिवारिक अदालत ने पति और उसके परिवार के सदस्यों के खिलाफ पत्नी द्वारा शुरू किए गए झूठे और अपमानजनक आरोपों व मुकदमों के भारी सुबूतों को नजरअंदाज करने में गलती की। दोनों की वर्ष 1998 में शादी हुई थी और उन्हें दो बेटे थे। वर्ष 2006 से पति-पत्नी अलग रह रहे थे।पति ने क्रूरता के आधार पर तलाक की याचिका खारिज करने के पारिवारिक अदालत के आदेश को चुनौती दी थी। पति का आरोप था कि महिला उसके व उसके परिवार के प्रति अपमानजनक रवैया अपनाती थी और वर्ष 2006 में उन्हें और उनके परिवार के सदस्यों को फंसाने के इरादे से ही केरोसिन डालकर आत्महत्या करने का प्रयास किया था।..Judgement Download Now...
..... : इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक बड़ा फैसला देते हुए कहा है कि वैवाहिक मामलों में (498A आदि) FIR दर्ज होने के बाद 2 महीने के ‘कूलिंग पीरियड’ तक किसी भी नामजद आरोपी की गिरफ्तारी नहीं होगी। साथ ही कोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों में आरोपियों के खिलाफ पुलिस की कार्रवाई भी नहीं की जायेगी। जस्टिस राहुल चतुर्वेदी ने मुकेश बंसल, उनकी पत्नी मंजू बंसल और बेटे साहिब बंसल की ओर से दायर रिव्यू पिटिशन पर सुनवाई के बाद यह आदेश पारित किया।सास-ससुर के खिलाफ आरोप हटाने की याचिका स्वीकारी कोर्ट ने अपने आदेश में कहा, ‘इस कूलिंग पीरियड के दौरान मामले को तत्काल परिवार कल्याण समिति के पास भेजा जाएगा। इस समिति के पास केवल वही मामले भेजे जाएंगे जिनमें IPC की धारा 498 A (दहेज के लिए उत्पीड़न) और ऐसी अन्य धाराएं लगाई गई हैं, जहां 10 वर्ष से कम की जेल की सजा है, लेकिन महिला को कोई चोट नहीं पहुंचाई गई है।’ सोमवार को दिए अपने फैसले में अदालत ने सास-ससुर यानी कि मंजू और मुकेश के खिलाफ आरोप हटाने की याचिका स्वीकार कर ली, लेकिन पति साहिब बंसल की याचिका खारिज कर दी और उसे सुनवाई के दौरान निचली अदालत के सामने पेश होने का निर्देश दिया।‘वैवाहिक मामले को कई गुना बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है’ कोर्ट ने कहा, ‘जब संबद्ध पक्षों के बीच समझौता हो जाए तो जिला और सत्र न्यायाधीश एवं जिले में उनके द्वारा नामित अन्य वरिष्ठ न्यायिक अधिकारियों के पास आपराधिक मामले को खत्म करने सहित मुकदमे को खत्म करने का विकल्प होगा। यह आमतौर पर देखने में आता है कि प्रत्येक वैवाहिक मामले को कई गुना बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है जिसमें पति और उसके सभी परिजनों के खिलाफ दहेज उत्पीड़न के गंभीर आरोप लगाए जाते हैं। आजकल यह धड़ल्ले से चल रहा है जिससे हमारा सामाजिक ताना-बाना बुरी तरह से प्रभावित हो रहा है।’ हापुड़ की शिवांगी बंसल ने ससुराल पक्ष पर लगाए थे आरोपकोर्ट ने कहा, ‘महानगरों में लिव इन रिलेशनशिप हमारे पारंपरिक विवाहों की जगह ले रहा है। वास्तव में कपल कानूनी पचड़ों में पड़ने से बचने के लिए इसका सहारा ले रहे हैं। यदि IPC की धारा 498-A का इसी तरह से बेजा इस्तेमाल होता रहा तो सदियों पुरानी हमारी विवाह की व्यवस्था पूरी तरह से गायब हो जाएगी।’ बता दें कि हापुड़ की रहने वाली शिवांगी बंसल ने दिसंबर, 2015 में साहिब बंसल से विवाह किया और 22 अक्टूबर, 2018 को उसने हापुड़ के पिलखुआ पुलिस थाना में अपने पति और ससुराल के अन्य लोगों के खिलाफ IPC की धाराओं 498-ए, 504, 506, 307 और 120-B समेत अन्य धाराओं के तहत FIR दर्ज कराई। बेटे और बहू के साथ सिर्फ एक साल 4 महीने रहे मुकेश और मंजू पुलिस ने इस मामले की गहराई से जांच की और सिर्फ 498-A, 323, 504, 307 के तहत चार्जशीट दाखिल कर दी। शिवांगी अप्राकृतिक मैथून, बलपूर्वक गर्भपात कराने के आरोपों को साबित करने के लिए कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर सकी। यही नहीं, चार्जशीट से उसके देवर चिराग बंसल और ननद शिप्रा जैन का नाम हटा दिया गया। साहिब बंसल और शिवांगी बंसल के बीच बढ़ते विवाद को देखते हुए शिवांगी के सास-ससुर ने उनसे अलग होकर एक किराये के मकान में रहना शुरू कर दिया था और वे अपने बेटे और बहू के साथ महज एक साल चार महीने ही रहे।.. Judgement Download Now
: हाल के एक फैसले में, एक महिला के खिलाफ द्विविवाह के मामले को रद्द करते हुए, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 हिंदू विवाह की मान्यता के लिए सप्तपदी (सात फेरे) को एक महत्वपूर्ण घटक के रूप में मान्यता देता है।"जहां विवाह पर विवाद होता है, वहां यह पता लगाना पर्याप्त नहीं है कि विवाह हुआ था, जिससे यह मान लिया जाए कि कानूनी विवाह के लिए आवश्यक संस्कार और समारोह किए गए थे। इस संबंध में ठोस साक्ष्य के अभाव में, यह मानना मुश्किल है कि 'सप्तपदी समारोह'; जैसा कि शिकायतकर्ता ने दावा किया है, विवाह इसलिए किया गया था ताकि संबंधित पक्षों के बीच एक वैध विवाह का गठन किया जा सके।'' न्यायमूर्ति संजय कुमार सिंह की एकल न्यायाधीश पीठ ने देखा।सप्तपदी में हिंदू विवाह समारोह के दौरान दूल्हा और दुल्हन को संयुक्त रूप से पवित्र अग्नि के चारों ओर सात प्रतीकात्मक कदम उठाना शामिल है।वैवाहिक विवाद की शुरुआत 2017 की एक शादी से हुई। शादी के तुरंत बाद, आवेदक-पत्नी ने दहेज उत्पीड़न का आरोप लगाते हुए अपने पति और ससुराल वालों के खिलाफ पहली सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज की।हालाँकि, 2021 में, एक मोड़ सामने आया जब पति ने एक शिकायत दर्ज कराई, जिसमें दावा किया गया कि उसकी पत्नी ने तलाक से पहले एक और शादी की थी। मजिस्ट्रेट अदालत द्वारा समन जारी होने पर, आवेदक-पत्नी ने अपनी वर्तमान याचिका के माध्यम से समन और शिकायत मामले की कार्यवाही को रद्द करने की मांग करते हुए उच्च न्यायालय से राहत मांगी। उच्च न्यायालय के समक्ष, महिला द्वारा पति के आरोपों से इनकार करने के बावजूद, उसने उसके कथित पुनर्विवाह का समर्थन करने वाले ठोस सबूत होने का दावा किया। उन्होंने महिला की कथित दूसरी शादी की तस्वीर संलग्न की थी। हालाँकि, प्रस्तुत साक्ष्यों के सूक्ष्म मूल्यांकन के बाद, उच्च न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि कथित दूसरी शादी के लिए आवश्यक समारोहों के पूरा होने का कोई ठोस सबूत नहीं था। अदालत ने कहा, जहां तक कथित तस्वीर का सवाल है, इस अदालत का मानना है कि शादी के तथ्य को साबित करने के लिए तस्वीर पर्याप्त नहीं है, खासकर तब जब वह साक्ष्य अधिनियम के अनुसार रिकॉर्ड पर साबित न हो। कोर्ट ने कहा कि: "यह अच्छी तरह से स्थापित है कि शब्द 'समारोहण' इसका अर्थ है, विवाह के संबंध में, 'उचित समारोहों के साथ और उचित रूप में विवाह का जश्न मनाना'। जब तक विवाह उचित रीति-रिवाजों के साथ मनाया या संपन्न नहीं किया जाता, तब तक इसे 'संपन्न' नहीं कहा जा सकता। यदि विवाह वैध विवाह नहीं है, तो पक्षों पर लागू कानून के अनुसार, यह कानून की नजर में विवाह नहीं है।" कोर्ट ने कहा कि यह भी अच्छी तरह से स्थापित है कि आईपीसी की धारा 494 के तहत अपराध का गठन करने के लिए, यह आवश्यक है कि दूसरी शादी को उचित समारोहों के साथ और उचित रूप में मनाया जाना चाहिए। इसलिए, उसे 'सप्तपदी' के रूप में उजागर करना; हिंदू कानून के तहत समारोह एक वैध विवाह के गठन के लिए आवश्यक सामग्रियों में से एक है, लेकिन वर्तमान मामले में उक्त साक्ष्य की कमी थी, अदालत ने समन आदेश और महिला के खिलाफ शिकायत मामले की आगे की कार्यवाही को रद्द कर दिया।.Judgement Download Now.
: सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने सोमवार को तलाक को लेकर अहम फैसला सुनाया। कोर्ट ने कहा है कि अगर पति-पत्नी के रिश्ते टूट चुके हों और सुलह की गुंजाइश ही न बची हो, तो वह भारत के संविधान के आर्टिकल 142 के तहत बिना फैमिली कोर्ट भेजे तलाक को मंजूरी दे सकता है। इसके लिए 6 महीने का इंतजार अनिवार्य नहीं होगा।कोर्ट ने कहा कि उसने वे फैक्टर्स तय किए हैं जिनके आधार पर शादी को सुलह की संभावना से परे माना जा सकेगा। इसके साथ ही कोर्ट यह भी सुनिश्चित करेगा कि पति-पत्नी के बीच बराबरी कैसे रहेगी। इसमें मेंटेनेंस, एलिमनी और बच्चों की कस्टडी शामिल है। यह फैसला जस्टिस एसके कौल, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस एएस ओका और जस्टिस जेके माहेश्वरी की संविधान पीठ ने सुनाया।महिला आयोग ने जताई खुशी, ये महिलाओं को जीवन में आगे बढ़ने का मौका देगा सुप्रीम कोर्ट की तरफ से कुछ शर्तों के तहत आपसी सहमति से तलाक के लिए 6 महीने की प्रतीक्षा अवधि खत्म करने पर NCW ने खुशी व्यक्त की है। राष्ट्रीय महिला आयोग का कहना है, कि यह फैसला महिलाओं को जीवन में आगे बढ़ने का मौका देगा। संविधान पीठ को ये मामला क्यों भेजा गया था। इस मुद्दे को एक संविधान पीठ को यह विचार करने के लिए भेजा गया था कि क्या हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13बी के तहत आपसी सहमति से तलाक की प्रतीक्षा अवधि (वेटिंग पीरियड) को माफ किया जा सकता है। हालांकि, खंडपीठ ने यह भी विचार करने का फैसला किया कि क्या शादी के सुलह की गुंजाइश ही ना बची हो तो विवाह को खत्म किया जा सकता है। संविधान पीठ के पास कब भेजा गया था यह मामला डिवीजन बेंच ने 29 जून 2016 को यह मामला पांच जजों की संविधान पीठ को रेफर किया था। पांच याचिकाओं पर लंबी सुनवाई के बाद बेंच ने 20 सितंबर 2022 को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। अदालत ने कहा था कि सामाजिक परिवर्तन में 'थोड़ा समय' लगता है और कभी-कभी कानून लाना आसान होता है, लेकिन समाज को इसके साथ बदलने के लिए राजी करना मुश्किल होता है। सितंबर 2022 में हुई थी मामले की सुनवाई, पढ़िए जजों ने क्या तर्क दिए...इंदिरा जयसिंह, कपिल सिब्बल, वी गिरी, दुष्यंत दवे और मीनाक्षी अरोड़ा जैसे सीनियर एडवोकेट्स को इस मामले में न्याय मित्र बनाया गया था। इंदिरा जयसिंह ने कहा था कि पूरी तरह खत्म हो चुके शादी के रिश्तों को संविधान के आर्टिकल 142 के तहत खत्म किया जाना चाहिए। दुष्यंत दवे ने इसके विरोध में तर्क दिया कि जब संसद ने ऐसे मामलों को तलाक का आधार नहीं माना है तो कोर्ट को इसकी अनुमति नहीं देनी चाहिए। वी गिरी ने कहा कि पूरी तरह टूट चुकी शादियों को क्रूरता का आधार माना जा सकता है। कोर्ट इसमें मानसिक क्रूरता को भी शामिल करता है। सिब्बल ने कहा कि मेंटेनेंस और कस्टडी तय करने की प्रक्रिया को तलाक की प्रक्रिया से इतर रखना चाहिए, ताकि महिला व पुरुष को आत्महत्या करने से बचाया जा सके। मीनाक्षी अरोड़ा ने कहा कि आर्टिकल 142 के तहत अपने विशेषाधिकार को लागू करते ही सुप्रीम कोर्ट संवैधानिक कानूनों के दायरे से बाहर आ जाता है। यह आर्टिकल न्याय, बराबरी और अच्छी नीयत वाले विचारों को साकार करता है। Judgement Download Now...
: तर्क एक MBA महिला ने दिल्ली हाई कोर्ट में अंतरिम गुजारा भत्ता के लिए अर्जी लगाई। घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत महिला की अर्जी को कोर्ट ने खारिज कर दिया। तर्क दिया कि वह काफी पढ़ी-लिखी है। अपने आय का स्रोत ढूंढने में खुद सक्षम है।पत्नी ने गुजारा भत्ता के तौर पर 50 हजार रुपए महीना की मांग की थी। कोर्ट ने सुनवाई के दौरान यह पाया कि मेंटेनेंस मांगने वाली पत्नी MBA है और अपने पति के बराबर योग्य है। उसका पति, जो पेशे से डॉक्टर है, लेकिन इस समय बेरोजगार है। Judgement Download Now...
: : कभी-कभार शादियां चल नहीं पातीं और बात तलाक तक पहुंच जाती है। हालांकि आगे सब कुछ झटपट नहीं होता। आज कपल के तलाक को लेकर सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधान पीठ ने अहम फैसला दिया है। कोर्ट ने कहा कि जीवनसाथियों के बीच दरार नहीं भर पाने के आधार पर वह किसी भी शादी को खत्म कर सकता है। SC ने साफ कहा कि पार्टियों को फैमिली कोर्ट भेजने की जरूरत नहीं है, जहां उन्हें 6 से 18 महीने तक का इंतजार करना पड़ सकता है। जस्टिस एस के कौल की अध्यक्षता वाली पांच जजों की पीठ ने साफ कहा कि SC को संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत इसका अधिकार है। यह आर्टिकल शीर्ष अदालत के सामने लंबित किसी भी मामले में ‘संपूर्ण न्याय’ के लिए आदेश से संबंधित है। यह फैसला 2014 में दायर शिल्पा शैलेश बनाम वरुण श्रीनिवासन केस में आया है, जिन्होंने भारतीय संविधान के आर्टिकल 142 के तहत तलाक मांगा था।हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 13बी में पारस्परिक सहमति से तलाक लेने की प्रक्रिया बताई गई है। सेक्शन 13(बी) 1 कहता है कि दोनों पार्टियां जिला अदालत में अपनी शादी को खत्म करने के लिए याचिका दे सकती हैं। इसमें आधार यह होगा कि वे एक साल या उससे भी अधिक समय से अलग-अलग रह रहे हैं या वे साथ नहीं रह सकते या पारस्परिक तरीके से शादी को खत्म करने पर सहमत हुए हैं।सेक्शन 13 (बी) 2 में कहा गया है कि तलाक चाहने वाली दोनों पार्टियों को अर्जी देने की तारीख से 6 से 18 महीने का इंतजार करना होगा। छह महीने का समय इसलिए दिया जाता है जिससे मान-मनौव्वल का समय मिले और वे अपनी याचिका वापस ले सकें। इस अवधि के बाद कोर्ट दोनों पक्षों को सुनता है और अगर संतुष्ट होता है तो वह जांच कर तलाक का आदेश जारी कर सकता है। आदेश जारी होने की तारीख से शादी खत्म मानी जाएगी। हालांकि ये प्रावधान तब लागू होते हैं जब शादी को कम से कम एक साल का समय बीत चुका होता है। किस आधार पर हो सकता है तलाक एक्स्ट्रा-मैरिटल अफेयर, क्रूरता, छोड़ने, धर्म परिवर्तन, मानसिक विकार, कुष्ठ रोग, यौन रोग, संन्यास, मृत्यु की आशंका जैसे आधार पर किसी भी जीवनसाथी की तरफ से तलाक मांगा जा सकता है। काफी मुश्किल और अनैतिकता की अपवाद वाली स्थिति में तलाक की अर्जी शादी को एक साल हुए बगैर, सेक्शन 14 के तहत स्वीकृत की जाती है।सेक्शन 13 (बी) 2 के तहत छह महीने की अनिवार्य अवधि से भी छूट दी जा सकती है। इसके लिए फैमिली कोर्ट में एक अप्लीकेशन देना होगा। 2021 में अमित कुमार बनाम सुमन बेनीवाल केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, 'जहां थोड़ी भी सुलह की उम्मीद है तलाक की अर्जी की तारीख से छह महीने का कूलिंग पीरियड दिया जाना चाहिए। हालांकि अगर सुलह-समझौते की थोड़ी भी संभावना नहीं है तो दोनों पक्षों की तकलीफ को बढ़ाना बेकार होगा।'तलाक की प्रक्रिया में क्या दिक्कत है? तलाक की प्रक्रिया शुरू करने के लिए दोनों पक्ष फैमिली कोर्ट पहुंच सकते हैं। वैसे, इस प्रक्रिया में काफी समय लगता है और यह लंबी भी है। ऐसे में कोर्ट के सामने बड़ी संख्या में केस पेंडिंग हो जाते हैं। अगर पति-पत्नी जल्दी तलाक चाहते हैं तो वे शादी को खत्म करने के लिए आर्टिकल 142 के तहत सुप्रीम कोर्ट जा सकते हैं। आर्टिकल 142 की उपधारा 1 के तहत सुप्रीम कोर्ट को विशेष अधिकार दिए गए हैं। इसके जरिए शीर्ष अदालत अपने सामने आए किसी भी मामले में पूर्ण न्याय के लिए आवश्यक आदेश दे सकती है। आज का आदेश भी इसी के तहत आया है और कोर्ट ने पति-पत्नी का तलाक मंजूर कर लिया। सुप्रीम कोर्ट का यह कदम ऐसी तमाम याचिकाओं के लिए नजीर बनेगा। Judgement Download Now...
: हमारे यंहा कोर्ट में आपसी सहमति (Mutual Divorce Process) से तलाक लेना बहुत ही आसान है। आपसी सहमति से तलाक (Divorce in Hindi) लेने की कार्यवाही में दो बार कोर्ट में उपस्तित होना होता हैं। दोनों पक्षों द्वारा एक संयुक्त याचिका संबंधित फॅमिली कोर्ट में दायर की जाती है। इस याचिका में हम तलाक क्यों चाहते है ये सब लिखा जाता है जैसे की हमारे बीच इतने मदभेद हो गए है की अब हम एक साथ नहीं रहे सकते ओर अब हम तलाक लेना चाहते है, इस प्रकार के कुछ कारण मेंशन किये जाते है इस बयान में सम्पति, अगर बच्चे है तो वो किसके साथ रहेंगे ये सब बाते समझौते में लिखी जाती है।हली उपस्थिति में पति पत्नी के बयान दर्ज किए जाते हैं ओर माननीय न्यायालय के समक्ष पेपर पर दोनों पक्ष के सिग्नेचर किये जाते है इसके बाद माननीय न्यायालय दवारा 6 महीने की अवधि दी जाती है, क्योंकि न्यायालय भी नहीं चाहता की शादी के पवित्र बंधन को तोडा जाये इसलिए वो 6 महीने का टाइम दे देते है जिससे की इनकी आपस में सुल्हे हो जाये ओर तलाक लेने से बच जाये। फिर 6 महीने की अवधि के बाद भी पति पत्नी एक साथ रहने को तयार नहीं है, तो माननीय न्यायालय तलाक (Divorce in Hindi) की डिक्री पास करता है।सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक फैसले में स्पष्ट रूप से कहा है की 6 महीने की अवधि अनिवार्य नहीं है जब पति पत्नी अब एक साथ नहीं रहना चाहते और अपनी इच्छा से तलाक चाहते है तो अदालत के विवेकाधिकार के आधार पर अवधि में छूट दी जा सकती है। ..Judgement Download Now...
: पति या पत्नी में से कोई एक तलाक लेना नहीं चाहता दूसरा तलाक लेना चाहता है। इसको हम Contested Divorce कहते है। अब इसमें परेशानी क्या आती है उस पर थोड़ा डिसकस कर लेते है। जब पति या पत्नी में से कोई एक तलाक नहीं चाहता तो जिसको तलाक लेना है वो दूसरे पक्ष पर केस करेगा केस किस आधार पर करना है वो में आपको निचे बातयूंगा क्योंकि Contested Divorce लेने के लिए कुछ आधार होते है। लेकिन केस करने से कुछ नहीं होगा उसको कोर्ट में साबित करना होगा जिस आधार पर आप केस लड़ रहे है उन आधारों को आप को साबित करना होगा तभी आपको तलाक मिलेगा।
• Grounds for Divorce – तलाक का आधार
• व्यभिचार: अगर पति या पत्नी में से कोई भी एक व्यक्ति दूसरे को धोखा दे रहा है किसी अन्य व्यक्ति के साथ शारीरिक संबंध बना रहा है।
• क्रूरता: पति पत्नी के बीच दो तरहे की हिंसा होती है पहली शारीरिक और दूसरी मानसिक इन दोनों में से कोई भी एक या दोनों होती है ये भी तलाक का एक आधार है।
• परित्याग: अगर पति पत्नी 2 साल से अलग रह रहे है ये भी तलाक का एक आधार है।
• धर्मान्तरण: अगर पति पत्नी में से कोई भी अपने आप को किसी अन्य धर्म में धर्मान्तरित किया है, यानि के धर्म परिवर्तन कर लिया है ये भी तलाक का एक आधार है।
• गंभीर शारीरिक या मानसिक रोग : अगर पति पत्नी में से कोई भी गंभीर शारीरिक रोग मसलन एड्स, कुष्ठ रोग जैसी कोई भयंकर बीमारी है ये भी तलाक का एक आधार है।
• संन्यास: अगर पति पत्नी में से किसी ने भी संन्यास ले लिया, ये भी तलाक का एक आधार है।
• गुमशुदगी: अगर पति पत्नी में से कोई भी 7 साल से लापता है ओर दूसरे पार्टनर को ये भी नहीं पता है की वो ज़िंदा है भी या नहीं ओर उस व्यक्ति को किसी ने 7 साल से देखा भी नहीं, ये भी तलाक का एक आधार है।
• नपुंसकता: अगर पति नपुंसक है तो ये भी तलाक का एक आधार है। ओर पत्नी बच्चा पैदा नहीं कर सकती ये ये भी तलाक का एक आधार है।
• सहवास की बहाली: अगर पति पत्नी में से कोई भी सहवास नहीं करने देता है तो ये भी तलाक का एक आधार है।
• तलाक के बाद बच्चों पर किसका अधिकार होता है? : तलाक के बाद अगर बच्चा 5 साल से छोटा है तो आमतोर पर उसकी कस्टडी मां को दी जाती है अगर बच्चा बड़ा है तो उससे पूछा जाता है की तुम किसके पास रहना चाहते हो या पति पत्नी आपस में ही समझौता हो गया है की बच्चा किसके पास रहेगा फिर उसकी कस्टडी उसी को दे दी जाती है।
• तलाक होने के कितने दिन बाद शादी हो सकती है?. : कंटेस्टेड डाइवोर्स होने के बाद पति पत्नी को दूसरी शादी करने के लिए कम से कम 3 महीने या 90 दिनों का इंतज़ार करना होगा। ये ९० दिन उस दिन से काउंट होंगे जिस दिन डाइवोर्स की डिक्री जारी की गए है।.
. Judgement Download Now
पत्नी स्पष्ट रूप से प्रतिशोध लेना चाहती थी.सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को क्रूरता और उत्पीड़न के आरोप में एक महिला के पूर्व ससुराल वालों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 498ए के तहत दायर आपराधिक मामले को रद्द कर दिया। [अभिषेक बनाम मध्य प्रदेश राज्य] जस्टिस अनिरुद्ध बोस, पीवी संजय कुमार और एसवीएन भट्टी की पीठ ने कहा कि वैवाहिक क्रूरता और दहेज उत्पीड़न के आरोप सामान्य और सर्वव्यापी थे और महिला "स्पष्ट रूप से अपने ससुराल वालों के खिलाफ प्रतिशोध लेना चाहती थी।" शीर्ष अदालत ने कहा, "वे (आरोप) इतने दूरगामी और असंभव हैं कि कोई भी विवेकशील व्यक्ति यह निष्कर्ष नहीं निकाल सकता कि उनके खिलाफ आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त आधार हैं... इसलिए, ऐसी स्थिति में अपीलकर्ताओं के खिलाफ आपराधिक प्रक्रिया जारी रखने की अनुमति देने से स्पष्ट और स्पष्ट अन्याय होगा।" शीर्ष अदालत मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के उस आदेश को चुनौती देने वाली अपीलों पर सुनवाई कर रही थी, जिसने महिला के पूर्व देवरों और उसकी सास के खिलाफ कार्यवाही को रद्द करने से इनकार कर दिया था। पति ने पहले तलाक की डिक्री हासिल कर ली थी, जिससे शादी टूट गई, हालांकि तलाक दिए जाने के खिलाफ महिला द्वारा दायर अपील उच्च न्यायालय के समक्ष लंबित थी। इस बीच, महिला ने क्रूरता के आरोप लगाए और आखिरकार, आईपीसी की धारा 498 ए और दहेज निषेध अधिनियम, 1961 के तहत अपराध का हवाला देते हुए तीनों आरोपियों के खिलाफ आरोप पत्र दायर किया गया। महिला ने अपने वैवाहिक घर में क्रूरता, दहेज उत्पीड़न और खराब रहने की स्थिति का आरोप लगाया। उसने मुंबई भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो और मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को अपने एक देवर के खिलाफ शिकायतें भी भेजीं, जो महिला की अपने भाई से शादी के कुछ महीने बाद सिविल जज के रूप में न्यायिक सेवा में शामिल हो गया था। सुप्रीम कोर्ट ने महिला द्वारा अपने ससुराल वालों के खिलाफ शुरू की गई आपराधिक कार्यवाही को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि घटनाओं के बारे में उसके बयान में स्पष्ट विसंगतियां और विसंगतियां थीं। अदालत ने कहा कि महिला ने स्वीकार किया है कि वह 2009 में अपने वैवाहिक घर से अलग हो गई थी, लेकिन 2013 तक, "उसके पति द्वारा तलाक की कार्यवाही शुरू करने से ठीक पहले" उसने ससुराल वालों के खिलाफ शिकायत दर्ज नहीं की थी। न्यायिक अधिकारी के खिलाफ आरोपों पर, शीर्ष अदालत ने सवाल किया कि वह शिकायतकर्ता-महिला से दहेज की मांग क्यों करेगा, भले ही वह ऐसा अपराध करने के लिए इच्छुक हो, जबकि उसकी शादी किसी और से हुई हो। चूँकि महिला ने पहले भी न्यायिक अधिकारी के खिलाफ उच्च न्यायालय में एक घृणित शिकायत करने की बात कबूल की थी, शीर्ष अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि उसके इरादे साफ नहीं थे। अदालत इन आरोपों से भी प्रभावित नहीं हुई कि महिला की सास ने महिला को यह कहकर ताना मारा था कि चूंकि उसने मैक्सी ड्रेस पहनी थी, इसलिए "उसे निर्वस्त्र कर सड़क पर नृत्य कराया जाना चाहिए।" न्यायालय ने इस आरोप को "आईपीसी की धारा 498ए के संदर्भ में क्रूरता के लिए पूरी तरह अपर्याप्त" बताया। इस प्रकार, अपीलें स्वीकार कर ली गईं। अपीलकर्ताओं (ससुराल वालों) के खिलाफ आपराधिक शिकायत और कार्यवाही रद्द कर दी गई।. ..Judgement Download Now.
: सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक महिला की ओर से अपने ससुराल पक्ष के खिलाफ आईपीसी की धारा 498 ए के तहत शुरू की गई आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया। पत्नी ने ससुराल पक्ष के खिलाफ क्रूरता के अपराध का आरोप लगाया था। सुप्रीम कोर्ट ने कार्यवाही को रद्द करते हुए कहा कि आरोप "सामान्य और साधारण किस्म के" थे। महिला ने अपनी सास और दो देवरों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई थी, जिनमें से एक देवर न्यायिक अधिकारी है। हाईकोर्ट ने धारा 482 सीआरपीसी के तहत कार्यवाही को रद्द करने से इनकार कर दिया, जिसके बाद आरोपी व्यक्तियों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।जस्टिस अनिरुद्ध बोस, जस्टिस संजय कुमार और जस्टिस एसवीएन भट्टी की पीठ ने कहा कि मामले में कई आरोप असंभावित और असंगत थे। उन्होंने देवर अलग-अलग शहरों में रहते थे और उनके साथ शिकायतकर्ता की बातचीत केवल त्योहारों के मौकों तक ही सीमित थी। शिकायतकर्ता लगभग दो वर्षों तक अपने वैवाहिक घर में रही। 2009 में उसने स्वेच्छा से वह घर छोड़ दिया और अपने माता-पिता के साथ रहना शुरू कर दिया। कोर्ट ने जो सबसे चौंकाने वाला तथ्य नोट किया वह यह था कि 2013 में पति ने तलाक की मांग के लिए याचिका दायर की थी, जिसके तुरंत बाद शिकायत दर्ज कराई गई थी।पत्नी ने न्यायिक सेवा में कार्यरत अपने के खिलाफ हाईकोर्ट और भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो को भी एक गुमनाम शिकायत भेजी थी, जिसे बाद में उसने स्वीकार भी किया कि शिकायत उसी ने भेजी थी। कोर्ट ने कहा, "वैवाहिक विवादों में पति के परिजनों के खिलाफ पत्नी की ओर शुरू की गई आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने के लिए याचिका दायर करने के उदाहरण न तो दुर्लभ हैं और न ही हाल में पैदा हुआ चलन है।" कोर्ट ने फैसले में ऐसे कई उदाहरणों का जिक्र किया जिनमें ये माना गया है कि ससुराल पक्ष के खिलाफ अपराध के मामलों को रद्द किया जा सकता है, अगर वह सामान्य और साधारण किस्म के हैं। (कहकशां कौसर उर्फ सोनम और अन्य बनाम बिहार राज्य और अन्य, 2022 लाइव लॉ (एससी) 141)। महमूद अली और अन्य बनाम यूपी राज्य और अन्य 2023 लाइव लॉ (एससी) 613 मामले में हाल के फैसले का भी संदर्भ दिया गया, जिसमें कहा गया था कि यदि एफआईआर/शिकायत को व्यक्तिगत दुश्मनी के कारण दर्ज किया गया है तो उसे रद्द करने के लिए संबंधित परिस्थितियों को ध्यान में रखा जाना चाहिए। अदालत ने कहा कि शिकायतकर्ता की ओर से अपने देवर के खिलाफ गुमनाम शिकायत दर्ज कराने का कृत्य व्यक्तिगत दुश्मनी का संकेत देने वाली परिस्थिति है। फैसले में कहा गया कि पत्नी ने 2009 में स्वेच्छा से अपना वैवाहिक घर छोड़ दिया था और पति की ओर से तलाक की मांग किए जाने के जाने के तुरंत बाद 2013 में शिकायत दर्ज की गई थी।अदालत को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि एफआईआर में उल्लेख किया गया है कि अपराध 2007 और 2013 के बीच हुए थे, हालांकि 2009 के बाद उत्पीड़न के संबंध में कोई आरोप नहीं है। शिकायत में देवरों द्वारा उत्पीड़न के किसी विशेष उदाहरण का उल्लेख नहीं किया गया था। अदालत ने यह भी कहा कि शिकायतकर्ता को मैक्सी पहनने के लिए ताना देने वाला सास का कथित बयान क्रूरता नहीं माना जाएगा। कोर्ट ने देखा, "..उसके आरोप ज्यादातर सामान्य और साधारण किस्म के हैं, बिना किसी विशेष विवरण के कि कैसे और कब उसका सास और देवर, जो पूरी तरह से अलग-अलग शहरों में रहते थे, उन्होंने उसे दहेज के लिए प्रताड़ित किया।" शिकायतकर्ता का एक अन्य आरोप यह था कि एक देवर ने अपनी शादी की तारीख पर शिकायतकर्ता और उसके माता-पिता से मांग की कि वे उसे 2.5 लाख रुपये और एक कार प्रदान करें। कोर्ट ने इसमें कहा, "वह अपनी शादी के समय अपनी भाभी से दहेज की ऐसी मांग क्यों करेगा, भले ही वह इस तरह के गैरकानूनी काम करने के लिए इच्छुक हो, इसे समझ पाना मुश्किल है और यह संसंगत है।" न्यायालय ने कहा कि आरोप "दूर की कौड़ी" और "असंभवना" हैं। यह कहते हुए कि आपराधिक प्रक्रिया को जारी रखने की अनुमति देना "स्पष्ट अन्याय" होगा, न्यायालय ने आपराधिक मामले को रद्द कर दिया।.Judgement Download Now...
एचसी, जो पिछले साल मथुरा अदालत द्वारा पारित एक आदेश के खिलाफ एक याचिका पर सुनवाई कर रहा था, ने सीआरपीसी धारा का हवाला देते हुए कहा कि अगर कोई पत्नी पति के साथ रहने से इनकार करती है तो वह भत्ते की हकदार नहीं है. : नई दिल्ली: इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में एक महिला को गुजारा भत्ता देने से इनकार कर दिया है, क्योंकि उसने कहा था कि उसने अपनी मर्जी से ससुराल छोड़ा था.न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार की एकल-न्यायाधीश की पीठ द्वारा दिए गए आदेश में कहा गया है: “सीआरपीसी की धारा 125 (4) के प्रावधान के तहत यह बिल्कुल स्पष्ट है कि यदि कोई पत्नी अपने पति के साथ रहने से इंकार करती है तो उसे अपने पति से भरण-पोषण लेने का कोई अधिकार नहीं होगा.”आपराधिक प्रक्रिया संहिता (Crpc) की धारा 125(4) कहती है कि “कोई भी पत्नी इस धारा के तहत अपने पति से भत्ता प्राप्त करने की हकदार नहीं होगी यदि वह बिना किसी पर्याप्त कारण के अपने पति के साथ रहने से इंकार करती है, या अगर वे आपसी सहमति से अलग रह रहे हैं.”हाईकोर्ट पिछले साल अगस्त में मथुरा की एक फैमिली कोर्ट द्वारा पारित एक आदेश को चुनौती देने के लिए उनके पति द्वारा दायर एक पुनरीक्षण याचिका पर सुनवाई कर रहा था, जिसमें उसे जीवन यापन के लिए रुपये का भुगतान करने का आदेश दिया गया था. फैमिली कोर्ट ने उसे पत्नी को 10,000 रुपए प्रति महीने गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया था. हाईकोर्ट में पति की ओर से पक्ष अधिवक्ता अभिनव गौर ले रहे थे.1 जून को पारित उच्च न्यायालय के आदेश में, न्यायाधीश ने कहा कि पत्नी ने दिसंबर 2017 में ससुराल छोड़ दिया था. उन्होंने तब कहा, “चूंकि वह अपनी मर्जी से गई थी, इसलिए वह धारा 125 (4) Cr.P.C के अनुसार रखरखाव का लाभ पाने का हकदार नहीं है.”हाईकोर्ट ने निचली अदालत के आदेश को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि यह आदेश “अवैधता और विकृति से ग्रस्त है”.अपनी ओर से, पत्नी ने दावा किया था कि उसने अपने वैवाहिक घर को अपनी मर्जी से नहीं छोड़ा था और उसने ऐसा इसलिए किया क्योंकि उसे “ताना मारा जा रहा था और अधिक दहेज लाने के लिए कहा जा रहा था”.पत्नी ने लगाया दहेज प्रताड़ना का आरोपउच्च न्यायालय में दायर याचिका के अनुसार कपल दिसंबर 2015 में शादी के बंधन में बंधे थे. याचिका में कहा गया है कि पत्नी ने दिसंबर 2017 में एक मेडिकल टेस्ट भी करवाया था जिसके कारण वह गर्भधारण नहीं कर सकी. दिप्रिंट ने याचिका की कॉपी देखी है. याचिका के अनुसार, पति ने उसी महीने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई थी, जिसमें महिला और उसके परिवार पर उसके और उसके परिवार के सदस्यों के साथ मारपीट करने का आरोप लगाया था. इसके बाद प्राथमिकी दर्ज की गई थी. उन्होंने आखिरकार जनवरी 2018 में तलाक के लिए अर्जी दाखिल की. उसी साल फरवरी में, पत्नी ने पति और उसके रिश्तेदारों पर भारतीय दंड संहिता के तहत क्रूरता (धारा 498A) स्वेच्छा से चोट पहुंचाना (323), आपराधिक धमकी (506), गर्भपात महिला की सहमति के बिना कराने (313) और अप्राकृतिक अपराध (377), दहेज निषेध अधिनियम, 1961 के प्रावधानों के साथ विभिन्न अपराधों का आरोप लगाते हुए एक क्रॉस-शिकायत दर्ज की थी. आदेश के अनुसार, पत्नी के वकील ने तर्क दिया कि वह इसलिए चली गई क्योंकि उससे दहेज मांगा जा रहा था. उन्होंने कहा कि “कोई भी पत्नी बिना किसी तुक या कारण के पति का घर क्यों छोड़ेगी”. साथ ही यह भी कहा गया है कि वह अभी भी अपने ससुराल वापस जाने के लिए तैयार है.. Judgement Download Now...
: Supreme Court Decision : सुप्रीम कोर्ट के पास चल रहे इस तलाक केस पर फैसला सुनाते हुए कोर्ट ने आदेश दिए हैं की पति का फ़र्ज़ है की वो पत्नी को गुज़ारा भत्ता दे, भले ही उसे अपनी प्रॉपर्टी ही क्यों ने बेचनी पड़ जाए, क्या है ये केस, आइये नीचे खबर में विस्तार से जानते हैं I सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में महिला के पति की पुश्तैनी संपत्ति की कुर्की कर उसे बेचने और बकाया गुजाराभत्ता के भुगतान का निर्देश दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि महिला के बकाया एक करोड़ 25 लाख रुपये के गुजाराभत्ते का भुगतान किया जाए। इस मामले में महिला ने पति के खिलाफ अर्जी दाखिल कर बकाया गुजाराभत्ते के भुगतान का निर्देश देने की गुहार लगाई। महिला का कहना था कि वह अपनी विधवा मां के साथ रह रही है और भरण पोषण के लिए उन्हीं पर निर्भर है। गुहार लगाई कि फैमिली कोर्ट को निर्देश दिया जाए कि वह छह महीने के भीतर गुजारा भत्ता संबंधित CRPC की धारा-125 (3) की अर्जी का निपटारा करे।हिला का आरोप है कि पति ऑस्ट्रेलिया चला गया और वहां के फैमिली कोर्ट से उसने 2017 में तलाक ले लिया। इसमें महिला की पेशी भी नहीं हुई। बिलासपुर के फैमिली कोर्ट में महिला ने तलाक कैंसल करने के लिए 8 नवंबर 2021 को अर्जी दाखिल की जो पेंडिंग थी। इसी दौरान पति ने ऑस्ट्रेलिया में दूसरी शादी कर ली।अदालत में पेश मामले के मुताबिक, शादी के बाद पति-पत्नी में अनबन रहने लगी। पति के खिलाफ महिला ने कई आरोप लगाए। महिला का पति कानूनी कार्यवाही में पेश नहीं हुआ। बाद में उसके खिलाफ कई क्रिमिनल चार्ज लगे। ससुर और सास के खिलाफ भी आरोप लगाए गए। इस दौरान कोर्ट ने उन्हें निर्देश दिया कि वे भरण पोषण के एवज में 40 लाख रुपये एरियर का भुगतान करें लेकिन यह भुगतान नहीं किया गया। महिला का आरोप है कि फैमिली कोर्ट ने प्रति महीने एक लाख रुपये गुजारा भत्ता 2016 में तय किया और बाद में उसे बढ़ाकर एक लाख 27 हजार 500 प्रति महीने किया गया। लेकिन, पति ऑस्ट्रेलिया चला गया और ससुर ने भी भत्ते के भुगतान से इनकार कर दिया।संपत्ति न बिके तो महिला को दे दी जाए' सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कोर्ट के तमाम निर्देशों के बावजूद महिला के पति और ससुर गुजारा भत्ते का भुगतान नहीं कर पाए। इस मामले में तथ्य है कि आरोपी पति ने पत्नी को छोड़ दिया और ऑस्ट्रेलिया चला गया। महिला का कहना है कि पति अपनी पुश्तैनी संपत्ति का इकलौता वारिश है। उसके पास 11 दुकानें हैं। महिला का उस पर 1.25 करोड़ गुजारा भत्ता बकाया है। सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि दिल्ली हाई कोर्ट के रजिस्ट्रार छह दुकानों को बेचने के लिए लगाएं और इस बात को सुनिश्चित करें कि उसका सही और वाजिब दाम मिले। दुकानों को बेचकर छह महीने के लिए उसका फिक्स डिपॉजिट हो और ब्याज महिला याची को दिया जाए। अगर दुकानों की बिक्री संभव नहीं हो पाती है तो संपत्ति याची महिला के फेवर में किया जाए। एक अन्य प्रॉपर्टी, जो पति और उनके पिता के नाम है, उसके रेंट की कुर्की जारी रहेगी, जब तक 1.25 करोड़ रुपये का भुगतान महिला को नहीं हो जाता है। SC ने कहा, अगर एक साल में इस निर्देश का पालन नहीं होता है तो रजिस्ट्रार को निर्देश दिया जाता है कि वह उसके तीन महीने के भीतर यदि महिला चाहे तो प्रॉपर्टी का मालिकाना हक उसके नाम किया जाए। यदि ऐसा नहीं तो प्रॉपर्टी को 18 महीने में ऑक्शन किया जाए और रकम से महिला के बकाये का भुगतान किया जाए।सुप्रीम कोर्ट ने किया विशेषाधिकार का इस्तेमाल सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एस रवींद्र भट्ट की अगुवाई वाली बेंच ने अनुच्छेद-142 (विशेषाधिकार) का प्रयोग किया और कहा कि सुप्रीम कोर्ट ऐसे मामले में शक्तिहीन नहीं है। वह ऐसे मामले में निर्देश जारी कर सकता है। कोर्ट ने कहा कि संपूर्ण न्याय के लिए यह आदेश पारित किया जा रहा है। Judgement Download Now...
: Punjab and Haryana High Court: पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने एक पति की पुनरीक्षण याचिका (revision petition) को खारिज करते हुए साफ कहा है कि अगर पत्नी को अंतरिम गुजारा भत्ता (Interim Maintenance) देने का आदेश कोर्ट ने दिया है तो भले ही पत्नी कमा रही हो, मगर पति उसे गुजारा भत्ता देने के लिए कानूनी और नैतिक रूप से बाध्य है. याचिकाकर्ता ने 7 दिसंबर 2018 को जिला न्यायाधीश मोगा के एक आदेश को चुनौती देते हुए पुनरीक्षण याचिका दायर की थी, जिसमें पत्नी को हर महीने 3,500 रुपये और नाबालिग बेटी को 1,500 रुपये का अंतरिम गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया गया.पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ( Punjab and Haryana High Court) ने फैमिली कोर्ट के एक आदेश को चुनौती देने वाली एक पति की पुनरीक्षण याचिका (revision petition) को खारिज करते हुए कहा कि अगर पत्नी को अंतरिम भरण-पोषण (interim maintenance) दिया गया है, तो भले ही पत्नी कमा रही हो, पति को उसका गुजारा भत्ता देना कानूनी और नैतिक रूप से बाध्य है. याचिकाकर्ता ने 7 दिसंबर 2018 को जिला न्यायाधीश (फैमिली कोर्ट), मोगा के एक आदेश को चुनौती देते हुए पुनरीक्षण याचिका दायर की थी, जिसमें पत्नी को हर महीने 3,500 रुपये और नाबालिग बेटी को 1,500 रुपये प्रतिमाह का अंतरिम गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया गया है.याचिकाकर्ता के अनुसार उसकी 29 अप्रैल, 2017 को शादी हुई थी और उनकी बेटी का जन्म मार्च 2018 में हुआ था, जो अब अपनी मां के साथ रह रही है. पति ने कहा कि पत्नी के झगड़ालू स्वभाव के कारण वे अलग रहने लगे. याचिकाकर्ता ने कहा कि उसकी पत्नी एमए, बीएड है और एक शिक्षक के रूप में नियुक्त है और अच्छी तनख्वाह पा रही है, जबकि याचिकाकर्ता कल्याण योजना के तहत एक प्रशिक्षक के रूप में तैनात है. लेकिन कोविड के कारण उसे फरवरी, 2021 से अब तक का वेतन नहीं मिल रहा है. वह खर्च के लिए पूरी तरह से अपने पिता पर निर्भर है.उसने यह भी कहा कि अपनी पत्नी के काम और आचरण से तंग आकर तलाक के लिए हिंदू विवाह अधिनियम (Hindu Marriage Act) की धारा 13 (Section 13) के तहत उसने एक याचिका दायर की है. जस्टिस राजेश भारद्वाज की खंडपीठ ने अपने फैसले में कहा कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) ने कई फैसले सुनाए हैं, जिससे ये बहुत साफ ढंग से स्थापित कानून है कि भले ही पत्नी कमा रही हो, पति कानूनी और नैतिक रूप से उसका गुजारा भत्ता देने के लिए बाध्य है.जस्टिस राजेश भारद्वाज ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 125 (Section 125 Cr.P.C.) के तहत गुजारा भत्ता का प्रावधान मनमौजी को रोकने के लिए है. पत्नी समान रूप से उसी जीवन स्तर की हकदार है, जिसका वह अपने पति के साथ रहते हुए उपयोग कर रही थी. पति एक सक्षम व्यक्ति है और इसलिए वह उस जिम्मेदारी से बचकर नहीं निकल सकता है, जिसे वह कानूनी रूप से निभाने के लिए बाध्य है.।.Judgement Download Now...
: 2015 में 'राजेश बनाम सुनीता और अन्य' केस में पंजाब ऐंड हरियाणा हाई कोर्ट ने तो यहां तक कह दिया कि पति गुजारा भत्ता देने से भाग नहीं सकता, भले ही उसे देने के लिए उसे भीख तक क्यों न मांगनी पड़े। अदालत ने कहा, 'अगर पति गुजारा भत्ता देने में असफल रहता है तो हर डिफॉल्ट पर उसे सजा काटनी होगी।' हाई कोर्ट ने कहा कि पति की पहली और सबसे अहम जिम्मेदारी अपनी पत्नी और बच्चे को लेकर है। इस जिम्मेदारी को पूरा करने के लिए उसके पास भीख मांगने, उधार लेने या चोरी करने का विकल्प है। दिलचस्प बात ये है कि इस फैसले के करीब 3 साल बाद जनवरी 2018 में मद्रास हाई कोर्ट ने एक मामले में फैमिली कोर्ट के जजों को सलाह दी कि गुजारा भत्ता के मामलों में वे 'भीख मांगो, उधार लो या चोरी करो' जैसी टिप्पणियों से परहेज करें। जस्टिस आरएमटी टीका रमन ने कहा कि भीख मांगना या फिर चोरी करना गैरकानूनी है। इसलिए इस तरह की टिप्पणियां न करें। ।.. Judgement Download Now
: अप्रैल 2022 में बॉम्बे हाई कोर्ट की औरंगाबाद बेंच ने नांदेड़ सिविल कोर्ट के फैसले को बरकरार रखते हुए महिला को अपने पूर्व पति को हर महीने 3 हजार रुपये अंतरिम गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया। इस मामले में जोड़े की शादी 17 अप्रैल 1992 को हुई थी। महिला ने क्रूरता का आरोप लगाते हुए तलाक की मांग की थी। 17 जनवरी 2015 को दोनों के तलाक पर मुहर लग गई। तलाक के बाद पूर्व पति ने महिला से 15 हजार रुपये मासिक गुजारे भत्ते का दावा किया क्योंकि उसके पास आय का कोई स्वतंत्र स्रोत नहीं था। महिला एक शिक्षण संस्थान में नौकरी करती है। नांदेड़ सिविल जज ने उसे अपने पूर्व पति को अंतरिम गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया था।..Judgement Download Now.
: सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में Shailja & Anr. v. Khobanna केस में अहम आदेश दिया। शीर्ष अदालत ने कहा कि सिर्फ इसलिए कि पत्नी कमाने में सक्षम है, कमा रही है तो इसका मतलब ये नहीं कि गुजारा-भत्ता को कम कर देना चाहिए। Judgement Download Now...
: यमुनाबाई अनंतराव आधव बनाम रनंतराव शिवराम आधव केस में सर्वोच्च अदालत ने कहा कि अगर कोई महिला किसी ऐसे शादीशुदा शख्स से हिंदू रीति-रिवाज के साथ शादी की हो जो अपनी पहली पत्नी के साथ रहता आया हो, तब कानून की नजर में उसकी शादी मान्य नहीं है। ऐसे में वह CRPC की धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता का दावा नहीं कर सकती। Judgement Download Now...
: दिल्ली हाईकोर्ट ने एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि शादी के बाद अपने पार्टनर को सेक्स के लिए इनकार करना क्रूरता है। सेक्स के बिना शादी अभिशाप है। शादी के बाद यौन संबंधों में लगातार निराशा से ज्यादा घातक और कुछ नहीं हो सकता। इस मामले में पत्नी के विरोध के चलते शादी का मकसद ही पूरा नहीं हुआ है।महिला ने फैमिली कोर्ट के फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी थी। महिला ने आरोप लगाया कि पति और ससुराल वाले उसे दहेज के लिए प्रताड़ित करते थे। जस्टिस सुरेश कुमार कैत और जस्टिस नीना बंसल कैत की बेंच ने सुनवाई करते हुए महिला की याचिका को खारिज कर दिया। अदालत ने कहा कि महिला साबित नहीं कर पाई है कि उसे दहेज के लिए प्रताड़ित किया गया। मामले में फैमिली कोर्ट ने सही फैसला दिया था। हालांकि यह साबित नहीं हुआ है कि महिला ने पति को छोड़ दिया था, लेकिन महिला ने पति के साथ 18 साल तक जो किया, वह क्रूरता है। इस आधार पर पति महिला से तलाक ले सकता है। दरअसल, कपल की शादी साल 2004 में हिंदू रीति-रिवाज से हुई थी। इसके बाद महिला मुश्किल से 35 दिन अपने पति के साथ रही। महिला शादी के बाद भी पिछले 18 सालों से अपने मायके में रह रही है। पत्नी के ससुराल न लौटने पर पति ने फैमिली कोर्ट में तलाक की अर्जी दी, जिसके बाद कोर्ट ने तलाक का फैसला सुनाया था।कोर्ट ने कहा- पति आध्यात्मिक विचार को मानता है। पति ने पत्नी की ओर से दायर दहेज केस को हाईकोर्ट में चुनौती दी। मामले पर सुनवाई करते हुए जस्टिस एम नागप्रसन्ना ने कहा- याचिकाकर्ता के खिलाफ आरोप है कि वो कभी अपनी पत्नी के साथ शारीरिक संबंध बनाने का इरादा नहीं रखता था। आध्यात्मिक विचार मानता है। उसे विश्वास है कि प्यार कभी शारीरिक संबंध पर नहीं होता, ये आत्मा का मिलन होना चाहिए।कोर्ट ने कहा कि पत्नी की ओर से पति पर लगाए गए आरोप हिंदू मैरिज एक्ट की धारा 12(1) के तहत क्रूरता में आते हैं, लेकिन IPC की धारा 498A के तहत क्रूरता नहीं है। चार्जशीट में याचिकाकर्ता के खिलाफ ऐसी कोई घटना या तथ्य नहीं है, जो इसे IPC की धारा के तहत क्रूरता साबित करे।जस्टिस ने यह भी कहा कि तलाक के लिए फैमिली कोर्ट ने शारीरिक संबंध न बनाने को क्रूरता माना है, लेकिन कोर्ट इस आधार पर क्रिमिनल कार्रवाई जारी रखने की अनुमति नहीं दे सकता, इससे कानून का गलत इस्तेमाल होगा।Judgement Download Now...
:अगर पत्नी बिना किसी वाजिब कारण के पति से अलग रह रही है तो वह गुजारा भत्ता पाने की हकदार नहीं है. अगर पति-पत्नी आपसी सहमति से अलग-अलग रह रहे हैं तब भी पत्नी गुजारा भत्ता का दावा नहीं कर सकती ..Judgement Download Now...
: अदालत का कहना है कि एक साल से अधिक समय से लंबित भरण-पोषण का बकाया सिविल मुकदमे के माध्यम से वसूल किया जा सकता है, भले ही सीआरपीसी की धारा 125(3) के तहत मजिस्ट्रेट के पास कोई डाटा उपलब्ध नहीं हो.सीआरपीसी की धारा 125 पत्नियों, बच्चों और माता-पिता के भरण-पोषण को लेकर कानून को नियंत्रित करती है. धारा 125(3) ऐसी स्थिति से संबंधित है जब कोई व्यक्ति बिना किसी कारण से भरण-पोषण के किसी भी आदेश का पालन नहीं करता है.ऐसी स्थिति में, मजिस्ट्रेट जुर्माना लगाने के लिए निर्धारित तरीके से बकाया राशि वसूलने के लिए वारंट जारी कर सकता है, या एक महीने की जेल की सजा भी दे सकता है. हालांकि, प्रावधान में यह भी है कि कोई भी वारंट जारी नहीं किया जा सकता है, जब तक कि इस तरह का आवेदन उस तारीख से एक साल के भीतर दायर नहीं किया जाता है जिस दिन यह राशि देय होती है.दूसरे शब्दों में कहे तो धारा 125(3) केवल रखरखाव आदेश के निष्पादन या कार्यान्वयन के लिए उस तारीख से एक साल के भीतर दायर करने की अनुमति देती है जिस दिन यह राशि देय होती है. अब, उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया है कि एक साल से अधिक समय से लंबित भरण-पोषण का बकाया सिविल मुकदमे के माध्यम से वसूल किया जा सकता है, भले ही मजिस्ट्रेट के समक्ष धारा 125(3) के तहत सहारा अब उपलब्ध नहीं है.न्यायमूर्ति नीना बंसल कृष्णा और न्यायमूर्ति सुरेश कुमार कैत की पीठ ने कहा, “चूंकि सीआरपीसी की धारा 125 का उद्देश्य केवल अपनी पत्नी, माता-पिता और बच्चों के प्रति पति के सामाजिक दायित्व को दर्शाता है, यह केवल तभी ऋण बनता है जब आश्रित/पत्नी को देय राशि निर्णय या डिक्री के माध्यम से स्पष्ट हो जाती है.” उन्होंने कहा, “एक बार जब एक निश्चित राशि देय हो जाती है, तो यह कानूनी ऋण बन जाता है. इसलिए, जिसकी वसूली सिविल मुकदमे के माध्यम से की जा सकती है.” पीठ एक पारिवारिक अदालत के मई 2019 के फैसले को चुनौती देने वाली अपील पर सुनवाई कर रही थी, जिसने रखरखाव के बकाया के रूप में 1.78 लाख रुपये की वसूली के लिए अपने नाबालिग बेटे की ओर से एक पत्नी के मुकदमे को खारिज कर दिया था. महिला को फरवरी 2008 में आवेदन दायर करने की तारीख से जनवरी 2010 में 5,000 रुपये प्रति माह का गुजारा भत्ता दिया गया था. पति द्वारा गुजारा भत्ता देने में विफल रहने के बाद, उसने गुजारा भत्ता की बकाया राशि की वसूली के लिए मई 2012 में मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट का दरवाजा खटखटाया. हालांकि, मजिस्ट्रेट ने 2008 से कुल राशि देने के बजाय मई 2011 से शुरू होने वाली एक वर्ष की अवधि के लिए उसे केवल बकाया राशि दी.अपील पर, पारिवारिक अदालत ने फैसला सुनाया कि एक सिविल मुकदमा चलने योग्य नहीं है, या मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट द्वारा रखरखाव आदेश के तहत दिए गए रखरखाव के बकाया की वसूली के लिए दायर नहीं किया जा सकता है.इस आदेश को उच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया, जिसने 5 प्रतिशत ब्याज के साथ 2.05 लाख रुपये की राशि के लिए मुकदमा दायर करने की अनुमति दी थी... Judgement Download Now